*किस वक्त ईमान लाना बेकार है?*
हर शख्स की उम्र मुकर्रर है न उससे घट सकती है न बढ़ सकती है। जब
जिन्दगी का वक्त पूरा हो जाता है तो हज़रत इजराईल अलैहिस्सलाम रूह निकालने
के लिये आते हैं उस वक्त मरने वाले को दायें बायें जहां तक नज़र जाती है।
फ़रिश्ते ही फ़रिश्ते दिखाई देते हैं। मुसलमान के पास रहमत के फ़रिश्ते होते
हैं और काफ़िर के पास अज़ाब के। उस वक्त काफिर को भी इस्लाम के सच्चे
होने का यकीन हो जाता है। लेकिन उस वक्त का ईमान मोतबर नहीं क्योंकि
ईमान तो अल्लाह व रसूल की बताई बातों पर वे देखें यकीन करने का नाम
है। और अब तो फ़रिश्तों को देखकर ईमान लाता है इसलिये ऐसे ईमान लाने
से मुसलमान न होगा। मुसलमान की रूह आसानी से निकाली जाती है और
उसको रहमत के फ़रिश्ते इज़्ज़त के साथ ले जाते हैं और काफिर की रूह बड़ी
सख्ती से निकाली जाती है और उसको अजाब के फ़रिश्ते बड़ी ज़िल्लत से ले
जाते हैं। मरने के बाद रूह किसी दूसरे बदन में जाकर फिर पैदा नहीं होती
बल्कि क़यामत आने तक आलम बरज़ख़ (दुनिया और आख़रत के दर्मियान एक
और आलम है जिसको बरज़ख़ कहते हैं) मरने के बाद से कयामत आने तक
तमाम इंसानों और जिन्नों को हस्बे मरातिब उसमें रहना होता है यह आलम इस
दुनिया से बहुत बड़ा है दुनिया के साथ बरख को वही निस्बत है जो (मां के
पेट के साथ दुनिया को) यह ख्याल कि रूह किसी दूसरे बदन में चली जाती
है चाहे आदमी का बदन हो या जानवर का या पेड़ पौधों में, यह गलत है इसका
"मानना कुफ्र है इसी को आवागवन और तनासुख कहते हैं।
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